संस्कृति के कथानकों और कथाओं को जीवंत करते ये कलाकार और उनकी भाव भंगिमाएं , ढोलको की high pitched थाप और मृदंग की गूंज सारे शरीर में एक अजीब सी सकरात्मक आवेश (charge) और ऊर्जा की कम्पन पैदा करती है, पर इसके साथ भौंडे और अश्लील नृत्य / थिरकन मन को उद्वेलित भी करती है ।
क्यों कला और संस्कृति के किसी विधा को अश्लीलता और उच्छृंखलता के सहारे की जरूरत पड़ रही है? या फिर हमने इस अश्लीलता और उच्छृंखलता को अपनी जरूरत बना ली है ? और क्या, कला को भला किसी के सहारे की क्या जरूरत आन पड़ी !
आज उत्तर भारत के त्योहारों में भी यही हावी है - पूजा पण्डालों और विसर्जनों में बॉलीवुड के नंबर- सॉन्ग्स ही पहली और अंतिम पसंद रह गई है।
खैर छोड़िए - जब तक मन उन ढोलकों के थाप , दुर्गा, काली और शिव के ताण्डव - नृत्य में खोया था , मन शांत था । एक प्रश्न जरूर था कि मेरे भीतर की बुराइयों के विनाश के लिए दुर्गा और काली कब आएगी । कहीं दूर से अभी भी आ रही है वो थाप । विशाल है अपना यह देश, विशाल है अपनी संस्कृति ।
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