हमारी दादी नानी की अनपढ़ पीढ़ी जो हम सबको बहुत डाँटती थी , कहती थी “नल धीरे खोलो... पानी बदला लेता है! अन्न नाली में न जाए, नाली का कीड़ा बनोगे! सुबह-सुबह तुलसी पर जल चढाओ, बरगद पूजो, पीपल पूजो, आँवला पूजो, मुंडेर पर चिड़िया के लिए पानी रखा कि नहीं? हरी सब्जी के छिलके गाय के लिए अलग बाल्टी में डालो। जाओ ये रोटी गली वाले कुत्ते को दे आओ ।" ..........
मेरे मन में यही विचार आया - "वो अनपढ़ होकर भी ज्ञानी थीं , और मैं विज्ञानी होकर भी अज्ञानी रह गया ।" इन सब को ना मानने का काफी मजबूत हथियार था हमारे पास - ये सब ढकोसला है , अंधविस्वास है । माना कि पीपल पूजना अंधविश्वास था उनका, विज्ञान नही पता था उन्हें की पीपल ऑक्सीजन की खान है । पर मैंने ये कैसा विज्ञान पढ़ा जिसने ये नही सिखाया की पीपल काटना कितना खतरनाक होगा । काश मैंने भी विज्ञान ना पढ़ा होता - खाने में प्लास्टिक और खतरनाक जहर तो ना मिलाया होता । पेडों को समाप्त कर गर्मी को इस खतरनाक स्तर तक तो ना पहुँचाया होता । पानी के स्तर को इस स्तर तक तो ना पहुँचा दिया होता । काश मैंने भी विज्ञान ना पढ़ा होता ।
मुझे खुद से जुड़ी एक प्रसंग याद आ गयी । कोई आज से 20 साल पहले मुझे मेरी दादी ने ख़तरनाक वाली डाँट लगाई थी -
"हथवा में भुर है एखनी के , जेतना के खा है ना कि ओतना तो गिरावा है ।..... bla bla .. "
एक लंबा सा भाषण । मुझे सारा चुन-चुन कर उठा कर खाना पड़ा | मैं आज उनके भाषण के साथ उनके दिल की टीस ( अन्न के अपमान के कारण ) को महसूस कर सकता हूँ । ये टीस हो भी क्यों ना , बीज बोने से लेकर अनाज काटने और फिर पकाने तक के आठ महीने का सारा मेहनत तो उनका खुद का था ।
आज की माँओं को भी फर्क नही पड़ता क्योंकि ready to eat packets से 5-10 मिनट में भोजन तैयार ।
उत्पादन में लगने वाला मेहनत का अंदाज भी नहीं है , सिर्फ पैसों की क़ीमत पता है ।
आज की पढ़ाई ये सिखाती है - नीचे गिरा हुआ अन्न गंदा हो गया, उसे मत खाओ। क्या हो गया संत तिरुवल्लुवर की पानी से भरी कटोरी और सुई? हम ये क्यों नहीं सिखाते की नीचे गिराना गलत है !