शायद अभी 2013-2014 तक मैं भी अपने थाली से कितना अनाज फेंक रहा था इसका कोई होश तो नहीं था | यूँ तो मेरी जिंदगी के तीन साल को छोड़कर लगभग घर का ही खाना खाया है तो थाली में फेंके जाने वाले अनाज की मात्रा वास्तव में ३-४ से १०-२० दाने के बीच ही रही होगी , पर आज मैं कह सकता हूँ की मुझे इसका होश तो नहीं रहता था कि नीचे भी कुछ गिर जा रहा है या सिंक में डालने से पहले अभी भी थाली में लगा है | पर जब 2007 से 2009 तक मेस में खाना खा रहा होता था, खास क२ 2007 - 08 के समय में काफ्फी ज्यादा ही खाना बर्बाद किया हूँ | यूँ तो कॉलेज में आने के दस दिनों में दिमाग ने समझ लिया था कि मेस का खाना अच्छा लगता नहीं है , पर फिर भी जितना लेता था उसमें से कमोबेश दो से तीन मुट्ठी या शायद कभी ज्यादा भी ( और शायद ही कभी कम ) थाली में छोड़ दिया करता था | पर शायद २००८ की गर्मी का कोइ महीना था , मेस में मैंने देखा किन्ही का थाली , खाने के बाद इतना साफ़ , एकबारगी तो मुझे भ्रम सा हुआ की भाई साहब ने खाली थाली ले के आये हैं ; पर फिर उन्हें थाली गिलास सब के साथ नल की तरफ विदा होते देखा तो फिर मुझे उस थाली ने आश्चर्यचकित किया | मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ की इस दक्षिण भारतीय कॉलेज में मेरे तरह का ही एक उत्तर भारतीय बंदा पुरे खाने को कैसे निपटा सकता है | मैंने उन्हें लगभग तीन-चार दिन follow किया और शायद ये समझा की उज्न्हे जितना खाना होता है उतना ही लेते हैं | मुझे लगता है शायद मैं ये निष्कर्ष भी अब निकाल पा रहा हूँ | उस समय तो बस भरोषा नहीं था की ऐसा किया जा सकता है , या शायद बाहरी खोखले दिमाग ने इसे कोई तवज्जो ही नहीं दिया , की खाना बर्बाद नहीं करना है | पर हाँ ये स्वीकार करता हूँ की वो तस्वीर दिमाग में कहीं ना कहीं जा कर एक जगह तो जरुर बना गयी थी और शायद कुछ हद तक या शायद बहुत हद तक ही मैंने खाने जितना ही लेना या जितना लेना - उतना खाना शुरू कर दिया था |
2012 से एक पहल के कारन स्कूली बच्चों के साथ जुड़ना शुरू हुआ था | इस क्रम में कभी एक बार बच्चों के साथ संत तिरुवल्लुवर की मशहूर कहानी "सुई और एक कटोरी पानी" को साझा कर रहा था | मैं कहानी सुना रहा था परन्तु मेरे भीतर ये चल रहा था की - "मैं इसे बचपन से जनता हूँ - पर क्या फायदा " ! ये मेरे मन मस्तिष्क को झकझोर रहा था, क्या लाभ इन पढ़ी पढाये कहानियों और ज्ञान - वाणियों का यदि वो मेरे भीतर नहीं गया , मैंने जीने में शामिल किया नहीं | और उस दिन मैंने बच्चों से नहीं पूछा कि बच्चों आपने इस कहानी से क्या सीखा ? शायद मैं खुद से ही पूछ रहा था ! - मैंने क्या सीखा ? हाँ मुझ में हिम्मत तो नहीं हुई कि मैं सुई और पानी की कटोरी ले कर खाने पर बैठूं पर विचार करके ये तय किया की यदि मैं भोजन गिराऊँ ही नहीं तो फिर जरुरत भी नहीं है | और मैं ये कर पाने में सक्षम भी हुआ | दूसरा ये भी मुझे समझ आया की आदतें यदि मुझे सुधारनी है तो मैं चर्चा शुरू करूँ , दूसरों को बताना शुरू करूँ कि ये सही नहीं है , उससे मन में ज्यादा समय तक बना रहता है | दूसरों को उपदेश देना आसान है - मैंने इसे एक अपने लिए टूल की तरह इस्तेमाल किया | मुझे जो भी आदत सुधारनी होती है मैं अपने आस पास सभी को इसके लिए टोकना शुरू कर देता हूँ | इससे मेरे अंदर यह भी उतने ही जोर से आती है - पहले खुद तो सुधर जाओ | मैं अभी तक अपनी पत्नी को टोकता रहता हूँ थाली के हर अंतिम दाने को खाने को लेकर के या नीचे नहीं गिराने को लेकर के | पर हाँ ये मेरे लिए काम करता है , आपके लिए करेगा कि नहीं ये तो मैं नहीं कह सकता |
एक और बात इससे ही जुड़ी याद आ रही है , पर कल साझा करता हूँ |
#बदलना तो हमें ही पड़ेगा
#स्वयं में बदलाव
एक और बात इससे ही जुड़ी याद आ रही है , पर कल साझा करता हूँ |
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